Oscillation

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Wednesday, August 27, 2014

सुपर कांटिनेंट : महाद्वीपों और महासागरों की उतपत्ति की वास्तविक कहानी को समझने में एक बड़ा अवरोध

यहाँ हम यह स्पष्ट कर रहे है किस प्रकार सुपर कांटिनेंट का विचार महाद्वीपों और महासागरों की  उतपत्ति की वास्तविक कहानी को समझने में एक बड़ा अवरोध साबित होता है और सुपर कांटिनेंट दर्शन एक विशाल भ्रम मात्र है यह सुपर कांटिनेंट विचारधारा साँप और रस्सी की कहानी के ठीक समान है जो भूगोलवेत्ताओ को भटका रही है | पिछले कई लाख वर्षों से पृथ्वी में अनेक प्रकार की विकृतियाँ विभिन्न प्राकृतिक और अप्राकृतिक कारणों से निरंतर आती गई इन कारणों ने सुपर कांटिनेंट जैसे विशाल भ्रम को जन्म दिया।इस अवरोध या रूकावट को हटा देने पर केसी तश्वीर सामने उभर कर आने लगती है यही सब हम यहाँ विचार कर रहे है | मूलतः सुपर कांटिनेंट भूगोलवेत्ताओ द्वारा सीमित दायरे और संकीर्ण दायरे में चिंतन का ही एक परिणाम है और मूलत: सुपर कांटिनेंट एक केवल और केवल मात्र पृथ्वी केंद्रित भौगोलिक चिंतन का परिणाम है। सूर्य की उत्पत्ति गैस व धूल के बादल से नहीं हुई न ही अन्य तारो का विकास गैस व धूल के बादल से हुआ। ब्रह्माण्ड में एक तारे के बनने की नेबुलर थ्योरी असंगत है। तारो का जन्म धूल व गैस के किसी बादल में स्वतः ही गुरुत्वीय शक्ति के पैदा हो जाने की कल्पना भोतिकी नियमो के हिसाब से त्रुटिपूर्ण है। न ही सूर्य या तारो से पदार्थ के छिटक कर अलग होने से ग्रहों की उत्पत्ति हुई। इसमें भोतिकी के मूल नियमो का पूर्ण उल्लंघन होता है। क्योकि विराट ब्रह्माण्ड स्तर पर यह विचार पूर्णत असंगत साबित होता है। तारो व ग्रहों की उत्पत्ति की यह कल्पना एक पुर्णतः असंगत विचारधारा को जन्म देती है। किसी भी आकाशीय पिंड की उत्पत्ति के लिए दिए गए वर्त्तमान सिद्धांतो में मुलभुत त्रुटियाँ है। सूर्य या तारो का भविष्य सुपरनोवा, न्यूट्रॉन तारे और अंततः एक ब्लैक होल नहीं है। यानि सूर्य या किसी तारे का अंत सुपरनोवा, न्यूट्रॉन तारे और अंततः एक ब्लैक होल नहीं होता। इसी प्रकार पृथ्वी व ग्रहों का जन्म सूर्य से पदार्थ के छिटक कर अलग होने से नहीं हुआ।
ब्रह्माण्ड व सभी आकाशीय पिंड की संरचना confocal oblate spheroids के समान होती है। ब्रह्माण्ड व सभी आकाशीय पिंड दो भिन्न confocal oblate spheroids के बीच दोलन करते रहते है। इस दोलन के अनुसार ब्रह्माण्ड एक तरह से दो भिन्न confocal oblate spheroids के बीच कसा जाता रहता है जिससे केंद्र पर पदार्थ का घनत्व इतना अधिक हो जाता है की वहा एक भीमकाय आकाशगंगा युक्त ब्लैक होल का निर्माण हो जाता है। इस तरह अनेक दोलन में अनेक भीमकाय आकाशगंगा युक्त ब्लैक होल का निर्माण होता जाता है। इन निर्मित भीमकाय आकाशगंगा युक्त ब्लैक होल की ज्यामिति संरचना confocal oblate spheroids होती है तथा ये भी इसी तरह से दो भिन्न confocal oblate spheroids के बीच दोलन करती रहती है। इस तरह से बनी भीमकाय आकाशगंगा युक्त ब्लैक होल भविष्य में एक तारे में धीरे धीरे परिवर्तित होती रहती है।  ये तारे भविष्य में विभिन्न उत्तरोतर छोटे तारो में रूपांतरित होते जाते है। फिर अंततः एक तारा गैस दैत्य ग्रह में परिवर्तित हो जाता है। यह गैस दैत्य ग्रह छोटे गैस दैत्य ग्रहों में, फिर ग्रह में, फिर चंद्रमा, फिर बड़ी उल्का, फिर उल्का धूल में टूटकर ब्रह्माण्ड में बिखर जाता है। इस पूरी प्रकिया में द्रव्य का विराट स्तर पर दो भिन्न confocal oblate spheroids के बीच ब्रह्माण्ड में मंथन होता रहता है। एक भीमकाय आकाशगंगा युक्त ब्लैक होल से तारे, फिर तारे से उत्तरोतर छोटे तारो, फिर सूर्य, फिर सूर्य से ब्रहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपचून, पृथ्वी, मंगल, शुक्र, चंद्रमा, धूमकेतु, उल्कापिंड अंततः धूल में परिवर्तित होकर ब्रह्माण्ड में घुलती जाती है। 
पृथ्वी के भोगोलिक इतिहास में सुपर कॉन्टिनेंट यानि एक विशाल महाद्वीप की अवधारणा पिछली एक शताब्दी से आश्चर्य ढंग से स्वीकार की जाती रही है. पृथ्वी पर सभी महाद्वीप सबसे पहले एक विशाल महाद्वीप के खंडित होने से निर्मित हुए. इस सुपर कॉन्टिनेंट के अस्तित्व में आ जाने के पीछे बड़े विचित्र तर्क दिए जाते रहे है.सभी महाद्वीप पहले आपस में एक विशाल महाद्वीप के खंडित होने से बने इसे सुपर कॉन्टिनेंट के द्वारा परिभाषित किया गया है. सभी महाद्वीप एक चित्रखंड पहेलिका यानि JIGSAW PUZZLE के तरह एक दुसरे में फिट थे फिर ये धीरे धीरे एक दुसरे से दूर हटने लगे. यह अवधारणा लगभग चार सो से अधिक वर्ष पुरानी बताई गई है. अनेक भूगोलवेत्ताओ को ऐसा लगता रहा है महाद्वीपों के तटीय किनारे ऐसे मालूम पड़ते है कि वे एक दुसरे में चित्रखंड पहेलिका तरह फिट होते है तो वे निश्चित ही एक विशाल महाद्वीप का हिस्सा रहे होंगे. अल्फ्रेड वेगेनर जर्मनी के प्रथम वे भूगोलवेत्ता थे जिन्होंने समुद्र के तटीय क्षेत्रो पर मिले जीवाश्मो, वनस्पतियों और अनेक जीवो कि प्रजातियो की समानता के द्वारा यह सुपर कॉन्टिनेंट की अवधारणा को ठोस आधार दिया. इससे भूगोलवेत्ताओ को जो प्रेरणा मिली कि सुपर कॉन्टिनेंट काल्पनिक नहीं है उन्होंने पृथ्वी पर और साक्षो को इसके पक्ष में संगृहीत करना प्रारम्भ कर दिया. धीरे धीरे महाद्वीपीय खिचाव व प्लेटो के परस्पर गति ने इस पूरे स्वरुप को प्लेट टेक्टोनिक के एक बड़े सिद्धांत को जन्म दिया.
               फिर समय आया कि भूगोलवेत्ता अपने इस प्लेट टेक्टोनिक को अन्य ग्रहों व चंद्रमाओ पर लागु करना शुरु किया. लेकिन अन्य ग्रहों में गैस दैत्यों पर फिर तारो, ब्लेक होल से लेकर समष्ट ब्रह्माण्ड तक इसका व्यापक रूप किस तरह का है वहा तक पहुँचते हुए यह असफल हो जाता है. अब हम इस सुपर कॉन्टिनेंट के पहले क्या रहा यदि इस पर विचार करे तो इसका उत्तर किसी के पास नहीं है. १) सुपर कॉन्टिनेंट के पहले क्या था? ये सुपर कॉन्टिनेंट स्वयं कहा से केसे किस प्रक्रिया से अस्तित्व में आया? २) उन बलों कि प्रकृति क्या रही जिन्होंने इस सुपर कॉन्टिनेंट को खंडित किया और छोटे छोटे महाद्वीपों के रूप में आ गया? ३) क्या गुरुत्वाकर्षण ने ऐसा किया? ४) सुपर कॉन्टिनेंट का अस्तित्व क्या आज तक किसी ग्रह पर मिला है? या उसके खंडित होने कि प्रक्रिया को आज तक अन्य किसी ग्रह पर देखा गया है? ५) इस अवधारणा को केवल मात्र पृथ्वी और पृथ्वी के सामान ग्रहों व चंद्रमाओ पर ही सिमित ढंग से लागु किया जा सकता है ऐसा क्यों? वास्तव में इन प्रश्नों का कोई संतोष जनक उत्तर आज तक किसी के पास नहीं है.  
              मूल रूप से सुपर कॉन्टिनेंट कि अवधारणा ही दोषपूर्ण है. सुपर कांटिनेंट का विचार महाद्वीपों और महासागरों की  उतपत्ति को समझने में एक बड़ा अवरोध है| इस अवरोध को दूर करने की अति आवश्यकता  है| क्योकि सुपर कॉन्टिनेंट की अब तक की व्याख्या स्वयं एक निराधार, तर्कहीन, अवैज्ञानिक और असंगत है. महाद्वीपों के विकास की पूरी कहानी एक लम्बी ब्रह्माण्ड व्यापी  प्रक्रिया का परिणाम है. पृथ्वी पर सुपर कॉन्टिनेंट जेसी अवस्था कभी नहीं रही. महाद्वीपों का विकास कुछ करोड़ या अरब वर्षो में नहीं हुआ यह तो एक विशाल लम्बी मंथन क्रिया के परिणाम के द्वारा संभव हुआ. अचानक केसे एक सुपर कॉन्टिनेंट पृथ्वी पर उभर कर ऊपर आ गया और स्वत्त: ही टूट कर एक विशेष ढंग में भूमध्य क्षेत्र में फ़ैल गया और फैला भी तो किसी भी विशेष नियम का उसने पालन नहीं किया भोतिकी के नियमो के अनुसार समझ से परे है. यह एक निरी कल्पना जेसा ही है. गुरुत्वाकर्षण के नियमो से तो यह पूरी तरह दोषपूर्ण है. कॉन्टिनेंट किस प्रकार एक लम्बी मंथन क्रिया से पृथ्वी पर उभर कर आये इसे differential rotation , variable oblateness और retrograde orbiting जेसी पूर्ण प्रमाणित आकाशीय पिंडो के गुणों को जाने बिना स्पष्ट नहीं किया जा सकता है. 
              पृथ्वी पर महाद्वीपों व महासागरों का निर्माण एक बहुत लम्बी द्रव्य मंथन क्रिया का परिणाम है. पृथ्वी पर सुपर कॉन्टिनेंट जैसी अवस्था कभी भी नहीं थी. पृथ्वी एक समय सूर्य के समान गैस व आग का गोला थी फिर वह ब्रहस्पति, शनि, यूरेनस व नेप्चून में परिवर्तित होती हुई एसी अवस्था में आती गई तो इसके साथ साथ द्रव्य के मंथन के चलते धीरे धीरे महाद्वीपों व महासागरों का प्राकट्य होता गया और अंततः पृथ्वी की अवस्था आते आते लिथोस्फियर और ऐस्ठेनोस्फियर जैसी ठोस सतह व महासागर इस दीर्घकालीन लम्बी मंथन के परिणाम से प्रकट हुए. पृथ्वी पर यह लम्बी मंथन क्रिया केसे चली इसे हम इस तरह से स्पष्ट करते है. पृथ्वी अपनी उत्पत्ति के समय से दोनों गोलार्धो में परस्पर विपरीत दिशाओ में एक गिले तोलिये के तरह वामावर्त व दक्षिणावर्त ढंग से निचोड़ी जाती रही है साथ ही ध्रुवो पर दोलनीय ढंग से दबाई जाती रही है. एक स्प्रिंग को जेसे दोनों किनारों पर कसने की तरह इसमें कसावट दोलनीय तरीके से होती रहती है. इसके कारण पृथ्वी के अंदर भरा हुआ तरल पदार्थ भूमध्य क्षेत्र से फुहार की भांति बाहर आता रहा और इस तरह वह सूखते हुए करोडो वर्ष बाद महाद्वीपो की ठोस प्लेटो में रूपांतरित होता गया. यही मंथन का परिणाम हुआ कि एक दीर्घकालीन प्रक्रिया ने महाद्वीपों व महासागरों को उत्पन्न किया. अतः महाद्वीपों व महासागरों कि उत्पत्ति केवल मात्र पृथ्वी में भोगोलिक हलचलों का परिणाम मात्र से नहीं होती यह तो एक विशाल लम्बी मंथन क्रिया का परिणाम है जो कृष्ण विवर से विविध तारो, तारो से सूर्य, सूर्य से ब्रहस्पति, ब्रहस्पति से शनि, शनि से यूरेनस, यूरेनस से नेप्चून, नेप्चून से पृथ्वी में आकर पूर्ण होती है. अतः यह एक दीर्घकालीन लम्बी मंथन क्रिया का परिणाम है. पृथ्वी पर महाद्वीपों और महासागरो की उत्पत्ति का मेरा यह नया विचार अन्य ग्रहों पर भी प्रभाव डालता है. जैसे भूगोलवेत्ता अपने पृथ्वी सम्बन्धी विचारो को अन्य ग्रहों पर लागू करते है ठीक वैसे ही मैने अपने विचार को अन्य ग्रहों पर लागू किया है. यदि महाद्वीपों और महासागरो की उत्पत्ति इस तरह से होती है तो फिर पृथ्वी के अतीत पर गहन विचार करने की जरुरत है. प्लेट टेक्टोनिक को विशाल व्यापक रूप देते हुए फिर संवहन की प्रक्रिया को बड़ी बारीकी से विचार करना होगा. इससे विभिन्न ग्रहों की अवस्थाओ में परस्पर संम्बंध स्थापित होता है और फिर एक नई कहानी उभर कर सामने आने लगती है. यह कहानी स्पष्ट रूप से आकाशीय पिंडो के एक दोलनमय गुण को सामने लाती है. तब एक ब्लेक होल अपने अक्ष पर घूर्णन नहीं करता. एक तारा अपने अक्ष पर घूर्णन नहीं करता. हमारा सूर्य अपने अक्ष पर घूर्णन नहीं करता. एक ग्रह अपने अक्ष पर घूर्णन नहीं करता. वास्तव में हमारी पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन नहीं करती. यह ब्रह्माण्ड अपने अक्ष पर घूर्णन नहीं करता. तो फिर इनका मूल व्यवहार केसा है? भूगोलवेत्ताओ को प्लेट टेक्टोनिक की व्याख्या विशाल पैमाने पर करनी चाहिए. प्लेट टेक्टोनिक को केवल पृथ्वी के भोगोलिक स्तर तक ही जानना त्रुटिपूर्ण है. इसके लिए पृथ्वी के ब्रम्हांड इतिहास को व्यवस्थित तरह से पुनः विचार करने की जरुरत है और पृथ्वी व अन्य आकाशीय पिंडो में परस्पर नए सिरे से सम्बन्धों को देखना होगा. तभी प्लेट टेक्टोनिक के लम्बे इतिहास को जन पाएंगे. हमें यह विचार करने की अति आवश्यकता है कि नेपचुन ग्रह में प्लेट टेक्टोनिक केसे होता है युरेनस में यह केसे होता है शनि में व ब्रहस्पति में यह केसे होगा. इन सभी के बीच एक श्रंखला में विचार करना जरुरी है.
अब इस तरह के द्रव्य मंथन में पृथ्वी के भोगोलिक इतिहास का ब्रह्माण्ड व्यापी स्तर तक विस्तार करने की आवश्यकता है। यानि पृथ्वी एक समय भीमकाय आकाशगंगा युक्त ब्लैक होल थी फिर यह एक तारे, विभिन्न तारो की अवस्था से होते हुए यह सूर्य में, सूर्य से एक गैस दैत्य ग्रह ब्रहस्पति, ब्रहस्पति से शनि, शनि से यूरेनस, यूरेनस से नेपचून, नेपचून से पृथ्वी अवस्था में पहुंची। इसलिए पृथ्वी के भोगोलिक इतिहास में तब सुपर कॉन्टिनेंट जेसी महाद्वीपीय अवस्था कभी नहीं थी। लिथोस्फयर और अस्ठेनोस्फेयर ठोस सख्त सतह का निर्माण तथा महाद्वीपों व महासागरो का निर्माण ब्रह्माण्ड व्यापी बहुत लम्बी मंथन प्रक्रिया का परिणाम है। प्लेट टेक्टोनिक्स जेसी प्रक्रिया केवल मात्र पृथ्वी के भोगोलिक इतिहास सीमा में ही नहीं होती। इन सभी भोगोलिक घटनाओ का अस्तित्व बहुत ही व्यवस्थित ढंग से धीरे धीरे लम्बी मंथन प्रक्रिया के सतत रूप से चलते रहने से होता गया। अत: पृथ्वी के भूगोल के वर्त्तमान eon , era  और geological time period को एक विशाल ब्रह्माण्ड व्यापी पैमाने पर विचार करते हुए इसकी सीमा को और विस्तृत: करते हुए विचार करने की मुलभुत आवश्यकता है। नेप्चून का भविष्य निश्चित ही पृथ्वी है यानि नेप्चून अंततः: पृथ्वी ही बनेगा यह निश्चित रूप से होगा। महाद्वीपों और महासागरो का निर्माण या विकास बहुत धीमी गति से सूर्य, ब्रहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्चून में द्रश्य रूप में स्पष्ट ढंग से दिखाई दे रहा है और ये पृथ्वी में आते आते पूरा प्रकट हो जाता है। इसलिए प्लेट टेक्टोनिक का प्रारंभ केवल पृथ्वी की भोगोलिक सीमाओ तक सिमित नहीं है। यह तो बहुत पहले से एक विराट मंथन में होता हुआ पृथ्वी में प्रकट हो कर उभरता हुआ अस्तित्व में आता है। जबतक हम पृथ्वी के भोगोलिक इतिहास को विराट ब्रह्माण्ड स्तर पर रखते हुए नहीं विचार करेंगे अनेक मुलभुत समस्याओ का समाधान नहीं खोज पाएंगे। इस से यह स्पष्ट साबित होता है कि पृथ्वी के भोगोलिक इतिहास सीमाओ का विराट ब्रह्माण्ड पैमाने पर विस्तार किया जाना अत्यंत जरुरी है। इसलिए यदि हम सुपर कांटिनेंट का विचार हटा कर महाद्वीपों और महासागरों की  उतपत्ति को समझने में विशाल ब्रह्माण्ड व्यापी दृश्टिकोण को अपनाते है तो वास्तविक स्थति सामने आ पायेगी |    

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